Autobiography of River Essay in Hindi: लोग कहते हैं कि ज्यों ज्यों आयु बढ़ती है त्यों-त्यों व्यक्ति बड़ा होता जाता है, पर मैं इस बात को नहीं मानती। हजारों वर्ष हो गए, किंतु मेरे जीवन पर समय का प्रभाव कभी नहीं पड़ा। आज भी मैं दौड़ती हुई चलती हूँ और निर्भय होकर विविध प्रदेशों में विचरण करती हूँ ।
नदी की आत्मकथा हिंदी निबंध – Autobiography of River Essay in Hindi
उद्भव
मेरा जन्म यहाँ से बहुत दूर एक पर्वतप्रदेश में हुआ है। मेरा बचपन उस पर्वत की हरी-भरी सुखमय घाटियों में बीता है। जीवन की वह सुबह कितनी सुहावनी थी ! दिनभर ‘कल-कल’ का संगीत गुनगुनाती हुई, वृक्षों के साथ लुका-छिपी खेलती हुई अपनी अठखेलियों में सदा मस्त रहती मैं आगे ही आगे बढ़ती जाती थी।
विकास
एक दिन घाटियों को फाँदकर बाहर निकलने की मेरी इच्छा हुई । घाटियों ने बहुत रोका, पर मैं मानती कैसे? बड़ी मुसीबतों से चट्टानों को तोड़ती-फोड़ती आखिर मैं एक खुले स्थान पर पहुँच गई: यह स्थान मेरी जन्मभूमि की अपेक्षा बहुत नीचा था। थकान के कारण मेरी गति धीमी पड़ गई । यहाँ मेरे दोनों ओर हरी-भरी घास अपनी शोभा बिखेर रही थी । एक दिन मैंने बहुत-से मनुष्यों को अपनी ओर आते हुए देखा। वे मेरे किनारे पर झोपड़ियाँ बनाकर रहने लगे। वे मुझमें स्नान करते, मेरे पानी से अपने कपड़े धोते और मेरा जल पीकर प्रसन्न रहने लगे। धीरे-धीरे बहुत-से गाँव मेरे किनारे बस गए। इस तरह मैं ‘लोकमाता’ बन गई।
सभ्यता की जननी
मेरे तट पर धीरे-धीरे गाँवों की जगह अनेक नगर बनते गए। मैं सोचती थी कि जो मनुष्य एक दिन अपनी असंस्कृत अवस्था में मेरी शरण आया था, वह संस्कृति और सभ्यता के क्षेत्र में कितना आगे बढ़ गया है। आज मनुष्य द्वारा बनाई गई ना मुझ पर चल रही हैं। बड़े-बड़े जहाज भी मुझ पर घूमते रहते हैं । मुझ पर पुल बाँधे जा रहे हैं, बाँध बनाए जा रहे हैं। मेरे जल से उत्पन्न बिजली द्वारा कल-कारखाने चलते हैं। मेरे तट पर न जाने कितने मेलों और उत्सवों की धूम मची रहती है । लोग मेरे तट पर आकर अपना दुख भूल जाते हैं। बच्चे खेलते हैं, कवि कविताएँ रचते हैं और चित्रकार चित्र बनाते हैं। वे मेरे हैं और मैं उनकी हूँ।
एक दुर्घटना
किंतु जहाँ मैं सभ्यता की जननी हूँ, वहाँ मैंने न चाहते हुए भी कई बार उसका विनाश भी किया है। एक बार भयंकर वर्षा के कारण मेरा पानी किनारों को तोड़कर ऊपर पहुँच गया। तट पर बसे हुए अनेक गाँव पानी में डूब गए । असंख्य प्राणियों को मौत निगल गई। यह सब देखकर मेरे दिल के टुकड़े-टुकड़े हो गए।
सागर-संगम
लोककल्याण करती हुई और सभ्यता का इतिहास लिखती हुई मैं आगे बढ़ती जाती थी। तभी मैंने विशाल महासागर का मोहक रूप देखा और मुझमें प्रणय की प्यास जाग उठी। मैंने उसके सामने आत्मसमर्पण कर दिया। अब मुझे जीवन की पूर्णता का अनुभव हो रहा है। मैं हमेशा गाती रहती हूँ:
जिंदगी जिंदादिली का नाम है,
मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं?