Autobiography of Teacher Essay in Hindi: दुनिया इमारत के कंगूरे की चमक-दमक पर रीझती है। नींव में गड़ी हुई ईंटों पर किसका ध्यान जाता है ? इसके बावजूद मैंने नींव को ईंट बनना ही पसंद किया। स्वतंत्र भारतरूपी इमारत को पुख्ता बनाने के लिए मैंने उसकी नीव को पुख्ता बनाना जरूरी समझा। इसलिए स्नातक होने के बाद मैंने शिक्षक बनने का निश्चय किया।
एक शिक्षक की आत्मकथा हिंदी निबंध – Autobiography of Teacher Essay in Hindi
परिवारवालों की प्रतिक्रिया
मेरे माता-पिता मुझे एक शानदार कंगूरे के रूप में देखना चाहते थे। इसलिए मेरा निर्णय सुनकर उन्हें अपनी आशाओं पर पानी फिरता हुआ नजर आया। पत्नी ने भी मेरे निर्णय का विरोध किया। उन दिनों शिक्षक का वेतन ही क्या था ! हर महीने मुश्किल से सौ पचास रुपए हाथ में आते थे। ऐसी दशा में परिवारवालों को मेरा निर्णय कैसे पसंद आ सकता था? फिर भी मैं अपने निश्चय पर अटल रहा।
शिक्षक के रूप में कार्य
मैंने एक स्थानीय पाठशाला में शिक्षक के रूप में काम करना आरंभ कर दिया। नया-नया जोश और कुछ कर दिखाने का हौसला था। मेरे पढ़ाने का ढंग इतना दिलचस्प था कि विद्यार्थी मंत्रमुग्ध हो जाते थे। सामान्य से सामान्य विद्यार्थी भी विषय को अच्छी तरह समझ ले, ऐसी मेरी कोशिश रहती थी। परिणाम यह हुआ कि कुछ ही समय में मेरी गिनती एक सफल और लोकप्रिय शिक्षक के रूप में होने लगी। विद्यार्थियों के अलावा उनके अभिभावक भी मेरा सम्मान करने लगे।
बुनियादी तालीम का प्रयोग
मैं गांधीजी को अपना आदर्श मानता था। उन्होंने कहा था कि शिक्षा वही है जो व्यक्ति को स्वावलंबी बनाए। उन्होंने बुनियादी तालीम की हिमायत की थी। मैं भी अतिरिक्त समय में अपने विद्यार्थियों को हस्तकला, बागबानी, कताई, बुनाई आदि की शिक्षा देता था। मेरी ही प्रेरणा से गाँव में पुस्तकालय और वाचनालय की स्थापना की गई और पाठशाला में खेल-कूद की नियमित प्रतियोगिताएँ आरंभ हुई।
शिक्षक के रूप में विशिष्ट सिद्धियाँ
अपने विद्यार्थियों के साथ मेरा व्यवहार स्नेहपूर्ण था। वे मुझसे खुलकर प्रश्न पूछ सकते थे। मैं अनुशासन का कड़ा हिमायती था। शिक्षा में लापरवाही या बेअदबी को मैंने कभी बर्दाश्त नहीं किया। मैंने अपने विद्यार्थियों में संयम, सेवा, त्याग, सहयोग और देशभक्ति के बीज बोए। प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को आगे लाने की मैंने सदा कोशिश की। उन्हें अपना अतिरिक्त समय देने में मैंने कभी हिचकिचाहट नहीं थी। इसी का परिणाम यह हुआ कि मेरे विद्यालय के विद्यार्थी एस. एस. सी. परीक्षा में यशस्वी होने लगे। उससे विद्यालय का नाम और गौरव भी बढ़ा ।
आत्मसंतोष
अब तो मैं अवकाश-प्राप्ति की अवधि में पहुँच चुका हूँ। फिर भी मुझे संतोष है कि मैंने अपना काम पूरी लगन और ईमानदारी से निभाया है। न मैंने कभी पक्षपात किया और न रिश्वत लेकर किसी अयोग्य विद्यार्थी को उत्तीर्ण किया। मेरे पढ़ाए हुए विद्यार्थियों में से कितने ही आज सफल व्यापारी और ऊँचे सरकारी पदों पर पहुँचकर नाम कमा रहे है । वे आज भी मिलते हैं तो मेरे चरण छूते हैं और आग्रह के साथ उपहार भी देते है। एक शिक्षक के लिए इससे बड़ा और क्या संतोष हो सकता है?